श्री अन्नपूर्णा चालीसा माता अन्नपूर्णा को समर्पित चौसठ पदों या चालीसा की शैली में लिखी स्तुति-रचना है जो उनकी दैवी प्रसाद, भोजन-प्रदान और पारिवारिक-आध्यात्मिक कल्याण के महत्व को रेखांकित करती है। यह भक्ति-सागर रूप में उपासना, आभार और जीवन-जीविका के लिए देवी की कृपा माँगने का प्रभावशाली साधन मानी जाती है।
देवी अन्नपूर्णा का स्वरूप और धार्मिक महत्व
देवी का रूप: अन्नपूर्णा को अन्न और पोषण की अवतारी देवी के रूप में पूजित किया जाता है; उन्हें रसोईघर और भोग-प्रदान की अधिशक्ति माना जाता है।
धार्मिक कथात्मकता: पुराणों और लोककथाओं में वे तृप्तिदात्री, गृह-कल्याणकारी और संतों के रक्षक के रूप में उभरी हैं।
आध्यात्मिक अर्थ: अन्न का प्रतीक केवल भौतिक पोषण नहीं, बल्कि जीवन के सत्कार्य, सत्कर्म और धर्म के निर्वाह का चिन्ह भी माना जाता है। अन्नपूर्णा की उपासना से रसोई और परिवार में समृद्धि तथा स्थिरता का आशीर्वाद मांगा जाता है।
चालीसा का इतिहास, रचना-प्रकार और उद्देश्य
इतिहास: अन्नपूर्णा चालीसा पारंपरिक भक्ति-साहित्य की परंपरा में विकसित हुई; इसका उद्देश्य देवी के गुण, प्रसाद और भक्तों पर उनकी कृपा का वर्णन कर श्रद्धा उत्पन्न करना है।
रचना-प्रकार: आमतौर पर चालीसा चौसठ या चालीस छंदों की चतुर्दश-इकाई शैली में नहीं, बल्कि चार-दोहा या चौकोर-श्लोकों में लिखी जाती है; भाषा सहज, भावपूर्ण और स्मारणीय होती है ताकि पाठक नियमित रूप से पाठ कर सकें।
उद्देश्य: अनाज, भोजन-प्राप्ति, घरेलू सुख-समृद्धि और आध्यात्मिक तृष्णा की पूर्ति के लिए भक्तों को प्रेरित करना; साथ ही करुणा, दान और परोपकार के संस्कार जगाना।
चालीसा की संरचना और प्रमुख विषयगत पंक्तियाँ
उद्घाटन स्तुति: देवी का नामोच्चार, उनके अलंकार, तपस्या और दिव्य रूप का वर्णन।
गोदान एवं अन्न-प्रसाद: अन्नपूर्णा द्वारा अन्न प्रदान करने की महिमा, भोजन-दान की पुण्यकथा और गृह-समृद्धि से जुड़े वचन
भक्तों पर कृपा: दुख-हरण, भुक्ति तथा मोक्ष-प्राप्ति के उपाय के रूप में देवी की शरणागतता।
आशीर्वाद-विनियोग: गृहस्थ जीवन, विद्या, व्यवसाय और यात्राओं के लिए आशीर्वाद की प्रार्थना।
समापन आरती / सुमन: देवी की आराधना, श्रद्धा-समर्पण और पश्चात् पाठक के लिए संक्षिप्त मंगल-शुभकामना।
पाठ करने की विधि, लाभ और अनुष्ठानिक सुझाव
पाठ की समयावधि: उपवास, नवरात्रि, खास पर्वों या दैनिक आराधना के समय किया जा सकता है; आरंभ में दीया, धूप और पुष्प समर्पित करें।
पाठ विधि: शांत स्थान पर बैठकर शुद्ध मन से चालीसा का पाठ; हर चौपाई के बाद माता का नाम जपना और अंत में दीप-आरती करना प्रभावकारी होता है।
लाभ: परिवार में भोजन-संपन्नता, आर्थिक स्थिरता, मानसिक सुख और गृह-कल्याण की वृद्धि; दान-पुण्य की प्रवृत्ति बढ़ती है और सेवा-भाव विकसित होता है।
अनुष्ठानिक सुझाव: यदि संभव हो तो चालीसा के साथ अन्न-दान करना श्रेष्ठ समझा जाता है; भोजन-संबंधी मंदिर या सेवा-धाम में प्रसाद वितरित करने से पुण्य बढ़ता है।
श्री अन्नपूर्णा चालीसा सिर्फ मन्त्र-उच्चारण नहीं, बल्कि अन्न और परोपकार के प्रति श्रद्धा को व्यवहार में बदलने की प्रेरणा देती है। नियमित पाठ से मनोबल, दान-भाव और घरेलू संतुलन की भावना पुष्ट होती है।।
॥ दोहा ॥
विश्वेश्वर-पदपदम की,रज-निज शीश-लगाय।
अन्नपूर्णे! तव सुयश,बरनौं कवि-मतिलाय॥
॥ चौपाई ॥
नित्य आनन्द करिणी माता।वर-अरु अभय भाव प्रख्याता॥
जय! सौंदर्य सिन्धु जग-जननी।अखिल पाप हर भव-भय हरनी॥
श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि।सन्तन तुव पद सेवत ऋषिमुनि॥
काशी पुराधीश्वरी माता।माहेश्वरी सकल जग-त्राता॥
बृषभारुढ़ नाम रुद्राणी।विश्व विहारिणि जय! कल्याणी॥
पदिदेवता सुतीत शिरोमनि।पदवी प्राप्त कीह्न गिरि-नंदिनि॥
पति विछोह दुख सहि नहि पावा।योग अग्नि तब बदन जरावा॥
देह तजत शिव-चरण सनेहू।राखेहु जाते हिमगिरि-गेहू॥
प्रकटी गिरिजा नाम धरायो।अति आनन्द भवन मँह छायो॥
नारद ने तब तोहिं भरमायहु।ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु॥
ब्रह्मा-वरुण-कुबेर गनाये।देवराज आदिक कहि गाय॥
सब देवन को सुजस बखानी।मतिपलटन की मन मँह ठानी॥
अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या।कीह्नी सिद्ध हिमाचल कन्या॥
निज कौ तव नारद घबराये।तब प्रण-पूरण मंत्र पढ़ाये॥
करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ।सन्त-बचन तुम सत्य परेखेहु॥
गगनगिरा सुनि टरी न टारे।ब्रह्मा, तब तुव पास पधारे॥
कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा।देहुँ आज तुव मति अनुरुपा॥
तुम तप कीन्ह अलौकिक भारी।कष्ट उठायेहु अति सुकुमारी॥
अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों।है सौगंध नहीं छल तोसों॥
करत वेद विद ब्रह्मा जानहु।वचन मोर यह सांचो मानहु॥
तजि संकोच कहहु निज इच्छा।देहौं मैं मन मानी भिक्षा॥
सुनि ब्रह्मा की मधुरी बानी।मुखसों कछु मुसुकायि भवानी॥
बोली तुम का कहहु विधाता।तुम तो जगके स्रष्टाधाता॥
मम कामना गुप्त नहिं तोंसों।कहवावा चाहहु का मोसों॥
इज्ञ यज्ञ महँ मरती बारा।शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा॥
सो अब मिलहिं मोहिं मनभाय।कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये॥
तब गिरिजा शंकर तव भयऊ।फल कामना संशय गयऊ॥
चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा।तब आनन महँ करत निवासा॥
माला पुस्तक अंकुश सोहै।करमँह अपर पाश मन मोहे॥
अन्नपूर्णे! सदपूर्णे।अज-अनवद्य अनन्त अपूर्णे॥
कृपा सगरी क्षेमंकरी माँ।भव-विभूति आनन्द भरी माँ॥
कमल बिलोचन विलसित बाले।देवि कालिके! चण्डि कराले॥
तुम कैलास मांहि ह्वै गिरिजा।विलसी आनन्दसाथ सिन्धुजा॥
स्वर्ग-महालक्ष्मी कहलायी।मर्त्य-लोक लक्ष्मी पदपायी॥
विलसी सब मँह सर्व सरुपा।सेवत तोहिं अमर पुर-भूपा॥
जो पढ़िहहिं यह तुव चालीसा।फल पइहहिं शुभ साखी ईसा॥
प्रात समय जो जन मन लायो।पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अघिकायो॥
स्त्री-कलत्र पति मित्र-पुत्र युत।परमैश्वर्य लाभ लहि अद्भुत॥
राज विमुखको राज दिवावै।जस तेरो जन-सुजस बढ़ावै॥
पाठ महा मुद मंगल दाता।भक्त मनो वांछित निधिपाता॥
॥ दोहा ॥
जो यह चालीसा सुभग,पढ़ि नावहिंगे माथ।
तिनके कारज सिद्ध सब,साखी काशी नाथ॥
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